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लाचार—दीपावली

हे राम !
हे राम !
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दीप! सालो साल से जलाते चले आ रहे हो।

कई हज़ार सेर तेल तूने जला डाले आज तक।
कितने लाख करोड़ रूई की बत्तियां जलाते जा रहे हो।
किन्तु अफसोस! अब तुम स्वयम जलते जा रहे हो।
क्योकि अब तुममें तेल एवं बत्ती तक को जलाने की शक्ति नहीं रही।
कभी तुम्हारे दीपक की रोशनी दरिद्रता नामक महाराक्षस का संहार करती थी।
लोगों में खुशियाँ बाँटते मन में उल्लास भरती थी।
किन्तु हाय! दीपो वाली दीपावली!तुम्हारी शक्ति क्षीण हो गयी।
तुम असहाय, निर्बल, लाचार एवम चिररोगिणी हो गयी।
नहीं तो तुम्हारे दीपक की लौ में आज तक आततायियों, दुष्टों, लुटेरों, ठगों एवम मानव शरीरधारी राक्षसों का कब का सर्वनाश हो गया होता। सब पतंगों की भांति जल मरे होते।
संभवतः इनके आगे तुमने भी घुटने टेक दिये हैं।
सत्य ही है–समय एवम प्रकृति-चक्र के समन्वित प्रबल व्यूह का भेदन तो इनका रचनाकार नहीं कर सका। औरो की क्या विसात?
लेकिन मानना पडेगा तुम्हारे त्याग एवम निःस्पृह समर्पण भाव को। तुमने दूसरों को जलाने की अपेक्षा स्वयं ही जल जाना ज्यादा श्रेयस्कर समझा।
और बलवान समय-प्रकृति के समन्वित भीषण पदाघात से कुचलने के लिये इन्हें छोड़ दिया। क्योकि तुम उतना भयानक दंड शायद इन्हें नहीं दे सकती थी। जितना प्रकृति-समय का एकीकृत उग्र एवं प्रबल प्रहार इन्हें भयानक रूप से दण्डित कर सकता है। क्योकि तुम तो अंततोगत्वा आखिर हो ही एक कोमल हृदया सबको धन एवं प्रसन्नता देने वाली। सबके जीवन में खुशियों की रोशनी फैलाने वाली। सबको हंसते देखने वाली।
दीपावली की शुभ कामनाओं के साथ।
गिरिजा शरण

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