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सगुण राम निर्गुण कहलाये. गुणातीत ते ब्रह्म सुहाए

हे राम !
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सगुण राम निर्गुण कहलाये. गुणातीत ते ब्रह्म सुहाए.

माँ बाप अपने बच्चो की तोतली भाषा सुन कर बड़े खुश होते है. उन्हें क्या पता क़ि वह अबोध शिशु क्या कह रहा है? उन्हें तो बस उस बालक के मुख से निकलने वाली अस्पष्ट शब्दावली ही आह्लादित करती है. यही कारण है क़ि धीरे धीरे थोड़ा बड़ा होने पर उसे गुरुकुल में विद्वान शिक्षको के सान्निध्य में विविध शिक्षाओं को ग्रहण करने के लिए प्रेषित किया जाता है. क्योकि यह सर्वथा स्पष्ट है क़ि यदि ऐसा नहीं किया गया तो वह अस्पष्ट तोतली भाषा भविष्य में अनर्गल प्रलाप, कुत्सित भाव-प्रकाश एवं ज्ञानेन्द्रियो के स्वाभाविक गुणों के विपरीत संवेदना ग्रहण एवं उत्सर्जन करने वाली हो जायेगी.

हे राम! किन्तु आप ने ऐसी विमुखता क्यों दिखाई? आप तो इस भाव-अंतर्द्वंद्व से परिचित या इसके सर्जक है. आप अपने नाम की सार्थकता के अनुरूप प्रत्येक काल-खंड में निर्गुण से सगुन एवं सगुन से निर्गुण प्रत्यक्ष एवं परोक्ष परिवर्तन करते रहते है. क्या हम अभी बड़े नहीं हुए है? क्या हम अभी भी माँ के शीतल आँचल की छाँव में सांसारिकता के छद्म व्यवहार से विमुख निर्द्वंद्व होकर स्तन पान में ही लगे रहें? तथा माँ अभी भी हमारे मलमूत्र में लिपटी रहे? या कही आप भी इस मायावी संसार के ममता आदि संबंधो के आभाषी मिठास में स्वयं भी कही मोहित तो नहीं हो गए. वैसे तो यह माया भी आप की ही रचना है. किन्तु क्या आप भी इस माया के विलास की मधुरता का अस्वादन करना चाहते है?
अभी बात संभवतः थोड़ी थोड़ी समझ में आ रही है. संभवतः आप अपनी ही प्रकृति स्वरूपा माया के निरंतर प्रवाह से उसके कुंठित हो जाने के भय से संत्रस्त हो गए है. इसीलिए उसे पुनः तीक्ष्णता प्रदान करने के लिए उसके विग्रह को समग्र रूप में विस्तार दे रहे है. ताकि उसका व्यवहार सृष्टि सञ्चलन में  अविचल एवं अनहत गति से बिना किसी पठार के बना रहे.
लेकिन मेरी अविकसित बुद्धि इस बात की तरफ बार बार यह संकेत दे रही है क़ि कही मैले वस्त्र को धोने में होने वाले विलम्ब के कारण उस मैल की विषाणु युक्त रासायनिक अभिक्रिया उस वस्त्र को ही नष्ट न कर दे. तो फिर तो वस्त्र ही नया बदलना पड़ जाएगा. तो क्या बार बार वस्त्र ही बदला जाएगा? तो फिर वस्त्र से आवेष्टित होने वाले शरीर एवं इस शरीर के आवरण में आचार-विचार के अनुरूप मूक दर्शक किन्तु अस्तित्वशालिनी होने का स्मरण कराने वाली आत्मा की भी स्थित विश्लेषित, गवेषित एवं प्रवर्धित होगी?
किन्तु संभवतः मैं यहाँ पुनः त्रुटिपूर्ण राह की और उन्मुख हो गया हूँ. आत्मा तो निर्गुण है. उसका तो कोई स्वरुप ही नहीं है. कोई आकृति नहीं है. तो ऐसा तो होना स्वाभाविक ही है. क्योकि यह है तो आखीर निर्गुण ईश्वर का अंश. तो फिर यह सगुन कैसे हो सकती है? लेकिन पुनः एक शंका उत्पन्न हो रही है. परमेश्वर तो पुल्लिंग है. आत्मा स्त्रीलिंग कैसे हो गयी? अरे नहीं, यह बात नहीं है. स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दोनों का सम्मिलित स्वरुप ही तो भगवान है. तो जब इसमें स्त्रीलिंग, पुल्लिंग, हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, सम-विषम, लाभ-हानि आदि सब समान रूप से भरे पड़े है. तो इतने तत्वों के सम्मिश्रण के पश्चात भी यह निर्गुण कैसे हुआ?
मेरी छोटी सी बुद्धि इस बात को समझ नहीं पा रही है. निर्गुण में भी निः+गुण है. तथा सगुण में भी स+गुण है. गुण तो दोनों में ही है. फिर निर्गुण सगुण में भेद किस चीज का. किन्तु भेद है. जिस तरह से पानी जब अवशीतक के संपर्क में जाता है तो ठोस बर्फ बन जाता है. तो द्रव रूप जल, बर्फ रूप ठोस एवं वायु रूप आर्द्रता  के रूप में अदृश्य हो जाता है. पुनः शीतल होने पर द्रव रूप में परिवर्तित हो जाता है.
निर्गुण एवं सगुण को विविध रूप में परिभाषित करना हमारी कल्पना, सोच एवं धारणा का परिणाम है. सगुण के बिना निर्गुण के कल्पना की कोई सार्थकता नहीं है. तथा सगुण वही है जो निर्गुण के संतुलित समन्वयन से रूपांतरित होता है. जल में स्थित नमक दिखाई नहीं देता है. यद्यपि पानी को चखने पर उस नमक का स्वाद मिलता है. किन्तु नमक दिखाई नहीं देता है. और जब पानी को वाष्पीकृत कर देते है तो अर्थात गुणों को पृथक करते है. तो नमक अस्तित्व में आ जाता है. अर्थात सगुण कई निर्गुण का संकलन है. ये ही निर्गुण एवं सगुण अवस्था के अनुसार दुर्गुण, सद्गुण, अवगुण आदि रूप धारण करते चले जाते है. अतः यदि मै आप को काल पुरुष, कालातीत, कालकृत या कालकर्त्ता कहूं तो कोई अनुचित नहीं होगा. क्योकि विविध अवतारों से आप सगुण है. तथा सूक्ष्म रूप से सबके अन्दर विद्यमान होकर आप निर्गुण है.
अभी बात समझ में आई है. इसी निर्गुण के कारण आप हमारी मूर्खता भरी तोतली भाषा या अवनति की और उन्मुख भाव एवं भाषा को समझते है. किन्तु सगुण रूप से इसे सुन कर हर्षित होते है. तथा भाव बिह्वल होते है.
तो इस तरह तो हम आप के सृष्टी नियमन एवं सञ्चलन के लिए प्रयोग के साधन हो गए. ताकि आप अपने इन निर्गुण एवं सगुण रूप से सृष्टी सञ्चालन हेतु नीति निर्देशक तत्वों का सृजन करें. लेकिन यह हमारी सोच की निकृष्टता है. क्योकि आखिर जो भी नीति निर्देशक तत्व बनेगे, आखिर हमारे लिए ही तो बनेगें. संसार में हमें ही तो रहना है.
हे प्रभो! आप की यह लीला वर्णन से परे है. नेति??????नेति??????
हे राम!!!!!!!
गिरिजा

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