Menu
blogid : 10970 postid : 18

जीवन या प्रयोगशाला?

हे राम !
हे राम !
  • 11 Posts
  • 50 Comments

गुरुवर पंडित आर. के. राय जी के चरणों में

रे रे चातक सावधान मनसा श्रूयन्तामम्भोदा बहवो हि सन्ति गगने सर्वे अपि नैतादृशा
केचिद वृष्टिभिरार्द्रयन्ति वसुधा केचिद गर्जन्ति वृथा. अतः यम यम पश्य तस्य तस्य पुरतो मा ब्रूहि दीनं वचः.

यह श्लोक नीति शतक से लिया गया है. इसमें कहा गया है कि रे चातक! सावधान मन से सुनो. यद्यपि आकाश में बहुत से बादल लगे होते है. किन्तु सब एक समान नहीं होते है. कुछ तों वर्षा कर के तपती धरा को आर्द्रता प्रदान करते है. और कुछ वृथा ही गरजते है. अतः जिन जिन को देखो उनके सामने कोई भी दीन वचन न कहें. इसी कथन को अलग अलग दो भागों में बाँट कर अंग्रेजी में दो भागो में कहा गया है.
Barking dogs seldom bite.
अर्थात जो कुत्ते भौंकते है वे काटेगें ही यह आवश्यक नहीं है.
और दूसरा इस तरह कहा गया है-
All that glitter is not gold.
अर्थात वो सारी चीजें जो चमकती है सोना ही नहीं होती है.
हे राम! संभवतः इसी आभाषी, प्रत्याभाषी एवं बहुआभाषी के शिकार प्राणी आप के रूप-प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, को विविध रूप में कल्पित करते है. परिणाम यह होता है कि वे आप के किसी भी रूप के बारे में कुछ भी नहीं जान पाते है. आप का वह रूप जो है ही नहीं, केवल आभास ही होता है, वह व्यक्ति को नास्तिक बना देता है. तों इसमें व्यक्ति का क्या दोष? क्योकि जो आप का रूप है ही नहीं उससे किसी परिणाम क़ी क्या आशा क़ी जा सकती है? करनी भी नहीं चाहिए. किन्तु क्योकि मनोमालिन्य एवं भाव बिद्रूपता के कारण जैसे उलूक को अंधियारा ही पसंद है, उसी तरह नास्तिक आप के इसी रूप के पीछे भागता है. और मृग मरीचिका का शिकार होकर अंत में वृथा ही प्राण त्याग देता है. उसे अन्य दिशा में सोचने या देखने क़ी इच्छा ही नहीं जागृत होती है. या दूसरे शब्दों में दूसरो के कथन या सम्मति में कोई रूचि ही नहीं दिखाई देती है. या उसे अपने से इतर लोगो के कथन में मीन मेष ही ज्यादा नज़र आने लगता है. इसे क्या कहा जा सकता है? अपने कर्मो का फल या सतत दुर्भाग्य? किन्तु उसे ऐसी भाग्य नीचता क्यों मिली? क्या आप के द्वारा निष्पक्षता का जो आप का स्वाभाविक गुण है, उसका उल्लंघन होता है?
नहीं, आप से यह कैसे संभव है? बिल्कुल स्पष्ट है, कर्म फल के दुःख-सुख क़ी अनुभूति मानसिक प्रचलन-संचलन-क्रियान्वयन या उत्सर्जन मात्र है. जिसे साधारण भाषा में मानसिक विकार कहा जाता है. यह बहुत हद तक सत्य ही है. अर्थात दुखादि क़ी केवल अनुभूति ही होती है. इसका शारीरिक या स्थूल प्रभाव तब देखने को मिलता है जब शरीर भी इसके अनुरूप गति करने लगता है. अर्थात चोट लगने पर सर्व प्रथम मष्तिष्क इस पीड़ा को अनुभव करता है. तथा उस मष्तिष्क से प्राप्त संवेदना रूपी आदेश का पालन करते हुए शरीर का अवयव हाथ उस चोटिल जगह को सहलाने लगता है. यदि मन के द्वारा इस दर्द क़ी कोई अनुभूति न हो तों हाथ क्यों कर के उस चोटिल स्थाल पर जाएगा? तों यह तों हम अपनी विविध कर्मेन्द्रियो एवं ज्ञानेन्द्रियो के द्वारा निर्धारित करते है कि अमुक काम दुःखदायी एवं सुखदायी है. इसीलिये हमें कोई भी भाग्य सौभाग्य या दुर्भाग्य के रूप में नज़र आती है. अतः यदि उलूक अँधेरे में भी वही काम करता है जो उजाले में अन्य पक्षी करते है, तों इसमें उलूक का अपराध कहाँ सिद्ध होता है? इसी तरह यदि कोई नास्तिक आभाषी स्वरुप के अनुशरण के द्वारा ही आप के तथागत स्वरुप को प्राप्त होता है तों इसमें कोई अपराध तों नहीं दिखाई देता.
इसी प्रकार प्रत्याभाषी स्वरुप के समागम से अभिमुद्रा का निस्तार किसी ऐसे प्रकार से होता है जिससे ज्ञानवाही तंतु अपनी सुविधा के अनुसार एक निश्चित तारतम्य स्थापित कर स्थायित्व का बोध करते है. यद्यपि यह बोध भी मात्र आभाषी ही होता है. किन्तु परस्पर तारतम्य होने के कारण तंतु एक तरह का संतुलन एवं समन्वय प्राप्त करते है. जिसे हम सांसारिक भाषा में सुख या आनंद कहते है, अतः प्रत्याभाषी स्वरुप निश्चयात्मकता क़ी सन्निकटता सुनिश्चित करता है. परिणाम सब का एक ही है. मार्ग अलग अलग है. संभवतः इसीलिए श्रीमदभागवत गीता में योगिराज भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि चाहे पूजा-अर्चना, यज्ञ-अनुष्ठान्न किसी भी प्रकार किसी भी देवता के निमित्त करो, वह सब मुझे ही प्राप्त होगा.
यदि ऐसी बात है फिर आभाषी या बहुआभाषी स्वरुप के पीछे क्यों भागना? क्यों न हम उसी स्वरुप का अनुशरण करें जिसमें निश्चितता सन्निकट प्रतीत हो. या स्थूल तथा सूक्ष्म दोनों का ही दृकतुल्य अनुपात स्थापित हो. अरण्य रोदन का क्या अभिप्राय?
अतः हे प्राणी! समग्र सुख- आत्मिक, आध्यात्मिक, नैतिक, मौलिक एवं सार्वकालिक सुख के लिये ही किसी का आवाहन करें. अनिश्चितता क़ी स्थिति में इस अमूल्य जीवन को वृथा न बिताएं. इस जीवन को प्रयोग शाला न बनाएं. क्योकि यदि जीवन प्रायोगिक कार्यो में ही व्यतीत हो जाएगा तों संयोग या वियोग निस्तारित कैसे होगें? अतः प्रायोगिक परिणाम जिसका कटु अनुभव उन लोगो के द्वारा प्रस्तुत किया जा चुका है, जिन्होंने परिणाम के रूप में यह स्पष्ट निर्देश दे रखा है कि जीवन एवं मृत्यु एक ही अस्तित्व के दो किन्तु अपने आप में पूर्ण पहलू है, के अलावा किसी तीसरे क़ी कल्पना निरा आभाषी ही है और जिसका वासतविकता से कुछ भी लेना देना नहीं है, के उद्देश्य का अनुपालन करें. इसलिये जीवन को प्रयोग सिद्ध परिणामो के अनुकूल बनाएं न कि कर्म एवं नियति (जीवन एवं मृत्यु) में विचलन.
हे राम! यदि किंचित आप के भृकुटी विलास से संशय क़ी स्थिति उत्पन्न हो तों इस दुराधर्ष अवस्था को अपनी वक्र भृकुटी का कोप भाजन न बनाईयेगा.
हे राम!

गिरिजा

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply