हे प्रभो! आप अवश्य बहुत ही दयाल है. आप का प्रत्येक न्याय दया के पुट से युक्त होता है. इतना होने पर भी वह किसी भी तरह अन्याय का रूप नहीं ले पाता है. हम नित आप पर भरोसा कर आप क़ी व्यवस्था एवं न्याय को सर्वोपरि स्थान देते है. किन्तु फिर भी हम देखते है कि आप अन्यायियों को तरजीह देते चले जा रहे है. प्रसिद्धि, यश एवं धन धान्यादी से उन्हें पूर्ण करते चले जा रहे है. और आप के अनुयायी नित नयी विपन्नताओं का शिकार हो रहे है. उसे नित नयी विपदाओं से जूझना पड़ रहा है. और हमारी निम्न स्तरीय बुद्धि इस दृष्य से डग मगा जाती है. किन्तु यह हमारी छोटी बुद्धि क़ी छोटी सोच है. आप बुराई के सिर को नहीं बल्कि जड़ को काटते है. तथा इसीलिए आप बुराई को पुरा पुरा अवसर देते है कि वह खूब अच्छी तरह से पुष्पित एवं पल्लवित हो जाय. और तब उस पर प्रहार करते है. ताकि उस बुराई के पुनः पनपने का अवसर न मिले. हे प्रभो आप क़ी महिमा अपरम्पार है. इसीलिए हम अपनी बौद्धिक सीमा के अन्दर ही सोच पाते है. किन्तु आप के सोचने क़ी कोई सीमा नहीं है. कारण यह है कि आप क़ी सोच ही सीमा निर्धारित करती है. तभी हम अपनी क्रिया कलाप को साकार रूप देने में तल्लीन हो जाते है. तथा आप उसके आगे का उत्तरदायित्व संभाल लेते है. अन्यथा हम भी सीमा ही ढूँढते रह जाते. और उत्तरदायित्व से दूर हटाकर कोरी कल्पनाओं का ऐसा संसार बनाते जिसके साकार होने का कोई आधार नहीं होता. कारण यह है कि हम तों अभी सीमा के आंकलन में उलझे रहते. हे प्रभो! यही कारण है कि रावण का संहार करने में आप ने तनिक भी उद्विग्नता नहीं दिखाई. आप उसे दूर तक बढ़ने का अवसर देते रहे. अन्यथा आप उसे सीता स्वयम्वर के समय ही समाप्त कर सकते थे. या उससे भी पहले जब उसने मणि-कबंध के साथ अन्याय पूर्वक उनकी ह्त्या कर दी थी. किन्तु आप ने उसे अपने सम्पूर्ण पापो के पूर्ण विकास करने का भर पूर अवसर प्रदान किया. और अंत में आप ने उस सम्पूर्ण रावण परिवार रूपी जंगल में से विभीषण रूपी केशर के वृक्ष को अलग कर उस जंगल को जला डाला. किन्तु हे प्रभो! आप ने यहाँ पर भी उस सम्पूर्ण रावण परिवार रूपी जंगल को आग लगाने के बाद उसे मरूभूमि नहीं बनने दिया. यहाँ पर भी आप ने न्याय में दया के संपुटित होने का अच्छा उदाहरण दिया. मरते समय भी आप ने प्रत्येक राक्षस को स्वर्गीय सुख ही दिया. और आप ने बता दिया कि सच्चा भक्त कही भगवान को वशीभूत कर देता है. रावण ने मरते समय आप के अनुज लक्ष्मण को ललकार कर कहा कि हे सौमित्र! अंततोगत्वा जीत रावण क़ी ही हुई. लक्ष्मण जी रावण के इस कथन से अचकचा गये. उन्होंने सोचा कि हम ने इसके सारे कुल खानदान का सर्वनाश कर डाला. यह भी अब मर रहा है. फिर भी यह कह रहा है कि जीत इसी क़ी हुई. शायद मरते समय इसकी बुद्धि विपरीत हो गयी है. इसीलिए यह प्रलाप कर रहा है. किन्तु रावण हंस कर बोला ” हे रामानुज! जब तक मैं जीवित रहा, तुम्हें अपनी लंका गढ़ी में प्रवेश नहीं करने दिया. किन्तु तुम दोनों भाई जीवित हो. तुम्हारी सेना भी अभी बची हुई है. किन्तु देखो तुम्हारे जीते जी मैं तुम्हारे नगर (बैकुंठ) में प्रवेश कर रहा हूँ. यदि साहस एवं शक्ति हो तों रोक कर दिखाओ.” और लक्ष्मण झेंप गये. हे राम! हम इसीलिए अपनी क्षुद्र बुद्धि के सहारी नाना अनर्गल प्रलाप करते है. तथा अपनी थोथी बुद्धि एवं विनाश क़ी तरफ ले जाने वाली विषाक्त बौद्धिक तर्क के सहारे बिना “ब्रह्म” को जाने “अहम् ब्रह्मास्मि” का दावा ठोकते जा रहे है. तथा बिना सूचिका को शक्ति संपन्न किये उससे पहाड़ खोद देने का स्वांग भरते चले जा रहे है. अरे पहले फावड़े से तों खोद कर देख लो कि खोदने क़ी शुरूआत भी कर सकते हो या नहीं. खोद देने क़ी तों बात ही अलग है. किन्तु बस वही बात है. चूहा हल्दी क़ी गाँठ पा गया. तथा वह भी जेनरल स्टोर का मालिक बन बैठा. क्योकि आखीर कार जेनरल स्टोर में भी तों हल्दी क़ी गाँठ भी होती है. और फिर प्रचारित एवं प्रसारित करने लगता है कि जेनरल स्टोर में सिवाय हल्दी के कुछ नहीं होता है. इस लिये जहाँ हल्दी क़ी कोई गाँठ दिखाई दे बस समझ जाओ वह जेनरल स्टोर है. किन्तु हे प्रभो! आप बहुत ही कृपालु है. आप ने यह तों बताया कि जेनरल स्टोर में हल्दी भी होनी चाहिए. उसके बाद और अन्य वस्तुओं का भी धीरे धीरे संग्रह दर्शाते चले जायेगें. जैसे हाथी देखने पहुंचे अन्धो ने उस हाथी के जिस अँग का स्पर्श किया हाथी का रूप और आकार वैसा ही बताया. जिसने सूंड पकड़ा उसने हाथी को रस्सी के समान बताया. जिसने कान पकड़ा उसने हाथी को ससोप के समान बताया. जिसने पूंछ पकड़ी उसने हाथी को झाडू के समान बताया. किन्तु हे प्रभो! उनमें से प्रत्येक को यह तों पता चला कि हाथी में झाडू के समान पूंछ, रस्सी के समान सूंड तथा खम्भे के समान पैर होते है. धीरे धीरे पता चल ही जाएगा कि यह सब मिल कर ही एक हाथी बनता है. किसी एक से नहीं. किन्तु हे प्रभो! दया करो. कारण यह है कि यदि सारा जीवन केवल यही अनुमान लगाते रह जायेगें तों फिर आप के दया, कृपा, करुना एवं वात्सल्य का रसास्वादन कब करेगें. हे प्रभो! ऐसे निरीहों पर कृपा करें. ये बुद्धि के दरिद्र है. इन्हें ऐसी संगती नहीं मिली जिससे आप के गुण, रूप एवं कृति के रस का स्वाद लेने का सोच सकें. इन्हें तों बस आप क़ी आलोचना ही सुहाती है. आप का विरोध ही इन्हें अच्छा लगता है. हे दयालु! ये अभागे मेरी समझ से दोषी नहीं है. इन्हें भी अवसर दीजिये. इन्हें रावण बनाकर अपना सान्निध्य न दीजिये. बल्कि हनुमान या सुग्रीव या जाम्बवंत या शबरी बनाकर अपनी शरण में लीजिये.
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