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नाम की महिमा अपरम्पार

हे राम !
हे राम !
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आदरणीय गुरुवर पण्डित राय जी के चरणों में सादर समर्पित
हे प्रभो ! यद्यपि हमें आप ने बुद्धि, विवेक, चेतना, मन एवं अपने सूक्ष्म स्वरुप आत्मा को हमारे साथ कर हमें संसार में भेजा है. हमें अवसर दिया ताकि हम इनमें कुछ विकास एवं उन्नति कर सकें. अपनी अन्य सच्चिदानंद क़ी अप्रतिम सुषमा से संपन्न विविध प्राकृतिक कलाकृतियों एवं रचनाओं से भी हमें समय समय से आवश्यक दिशा निर्देश एवं सहायता प्रदान करते रहते है. किन्तु हम अघी एवं कृतघ्न अपनी हठ वादिता एवं नारकीय बुद्धि के कारण अपनी दूषित भाषा के आदती होने से उनकी भाषा नहीं समझ पाते है. हे प्रभो ! यह हमारी मूढ़ता एवं अल्पज्ञता ही है जिस कारण से हम अपनी बौद्धिक क्षमता एवं आध्यात्मिक स्तर को निखार नहीं पाये. इस लिये आप क्षमा करेगें. किन्तु क्षमा माँगने से तों इस कुकृत्य का पश्चाताप हो नहीं पायेगा. क्योकि क्षमा याचना तों सहज पलायन वादिता का एक विकसित रूप है. अतः आप भला हो इसके प्रतिकार के रूप में हमें दण्डित करें ताकि भविष्य में हम इस कुकृत्य क़ी पुनरावृत्ती न कर सकें. किन्तु यदि हम किसी पूर्वाग्रह या हठी प्रवृत्ती को अपनी मूल भूत चर्या बना चुके होगें तों चाहे आप बार बार दण्डित करें, हम तों उस कुकर्म को दुहारायेगें ही. तों हे प्रभो, आप ने उसके लिये क्या विचार रखा है.?
लेकिन हे मेरे परमात्मा ! आप वास्तव में अलौकिक प्रतिभा के एक मात्र स्रोत है. इसी लिये तों आप त्रेता युग में ऐसे नर पशुओं के संहार के लिये स्वयं शरीर धारण किया था. तथा आप के नाम रूपी मन्त्र क़ी यह महिमा रही कि आप के न रहने पर भी मात्र आप का नाम ही बार बार ऐसे कुकर्म करने वालों का संहार करता जा रहा है.
हे मेरे आराध्य ! अभी कोई चिंता नहीं है. क्योकि आप के नाम क़ी महिमा आप से भी बड़ी है. कारण यह है कि आप ने तों शरीर धारण कर मात्र त्रेता युग में उत्पन्न रावण, कुम्भ कर्ण, त्रिसिरा, बाली आदि कुछ नर पिशाचों का संहार किया. किन्तु आप का नाम तों आज भी और आगे भी प्रत्येक युग में राक्षसों का संहार करता रहेगा.
यह अलग बात है कि हम उसे मात्र संयोग मान कर अपनी मानसिक तुष्टि के लिये नित्य प्रयत्न शील रहेगें. तथा आप के द्वारा विविध अवसरों पर प्राप्त होने वाले दंड स्वरुप मार्ग दर्शन को विस्मृत कर उसी साधु अभिगर्हित निन्दित कार्य को करते रहेगें. किन्तु हे प्रभो ! इसमें भी आप हमारी भलाई ही छिपा रखे है. क्योकि इस नित्य परिवर्तन शील संसार के बहू आयामी कलि प्रभावित दुष्प्रभावो एवं उनके स्रोतों से हमें परिचित कराने का इससे ज्यादा सरल मार्ग और क्या हो सकता है? जब तक जूता पहनेगें नहीं, हम कैसे जान पायेगें कि वह हमारे पैर में कहाँ काट रहा है? किन्तु हे परमेश्वर ! यहाँ मानव सुलभ एक और घोर शंका उत्पन्न हो रही है. तों क्या हमारा सासारिक जीवन मात्र परिक्षण एवं प्रशिक्षण के निमित्त ही है.? क्या हम आजीवन विविध जूते पहन कर उसके काटने क़ी ही प्रतीक्षा करते रहेगें? हे प्रभो जैसा कि मुझे ज्ञात है, जब शरीर, मन एवं पर्यावरण सब सुखी एवं संतुलित हो तभी वह सुख सच्चा सुख कहलाता है. तों यदि हमारा शरीर सदा तपता एवं विविध प्रशिक्षणों से ही गुजरता रहेगा तों हम कैसे सुखी कहे जा सकते है? लेकिन हे मेरे ईश्वर ! निश्चित ही आप अलक्ष्य को भी अपनी वेधन क्षमता के परिधि के अधीन ही सीमित कर रखे है. यह मात्र आप को पता है कि दुःख क्या है/ तथा सुख क्या है? हम अपनी समस्त कर्मेन्द्रियों के शैथिल्य को शारीरिक सुख कहते है. किन्तु आप शारीरिक अवयवो एवं इन्द्रियों के शैथिल्य को मृत्यु क़ी संज्ञा देते है. सच्चाई भी यही है. मृत्यु में भी मात्र इन्द्रियाँ ही शिथिल, नपुंसक एवं निष्क्रिय हो जाती है. और आप इस मृत अवस्था में मानसिक सुख को देकर सम्पूर्ण सुख के रूप में वर्गीकृत नहीं करते. इसी लिये आप इन्द्रियों को सक्रिय रखते हुए या जीवित रखते हुए उन्हें मानसिक सुख के उपभोग का अवसर प्रदान करते है. किन्तु हम इन्द्रिय जनित सुख को मानसिक सुख के साथ संयुक्त कर पूर्ण सुख के रूप में परिभाषित करते है. धन्य हो प्रभो ! आप क़ी न्याय पूर्ण समन्वित एवं संतुलित व्यवस्था एवं प्रबंध हम मानव के कल्पना से बहुत दूर है. हे देव ! इसलिये यह आवश्यक है कि हमें ह़र स्वरुप, स्थिति, प्रभाव एवं परिणाम से अभिमुख करा, उसके निवारण हेतु पूर्व नियमन एवं परिकल्पना के लिये अभिप्रेरित करें.
हे मेरे भगवान ! हम आप से अपने दुःख तों दूर करने को नहीं कहेगें. क्योकि इस तरह से आप दुखी होगें. वैसे आप समस्त सुख एवं दुःख से परे है. इसीलिए आप भगवान है. किन्तु हम चूंकि आप को अपने सर्वस्व के रूप में देखने को ही लालायित है. अतः आप सुखी भी है. तथा दुखी भी है. क्योकि न तों आप सुखी है और न तों दुखी है. आप इनसे अभिलाशिता रखे ही नहीं है. अतः आप इन सबमें विद्यमान होकर भी इनसे बहुत दूर है. और यही हम मानव समुदाय के लिये ठीक भी है. अन्यथा हम आप को भी किसी एक जगह पर स्थिर कर शेष भाग को आप से रहित कर देगें. जैसा हम अपने आप को करते है. इसलिये हे भगवान, आप के इतना सब करने पर भी यदि अपने कष्टों एवं दुखो को दूर करने के लिये अभी भी आप के ही सहारे रहें, तों आप को कष्ट होना स्वाभाविक ही है. जैसा कि कोई माँ-बाप अपने पाल पोश कर पढ़ा लिखा कर बड़े किये संतान को फिर भी पराश्रित ही देखता है. या इतना करने पर भी स्वावलंबी न होकर अपने ऊपर ही आश्रित पाता है तों उसे तक़लीफ़ होता है. इसी प्रकार आप के इतना करने के बावजूद भी यदि हम आप से कष्टों को दूर करने को कहें तों यह आप क़ी महिमा के विरुद्ध होगा. अतः हम इतना ही प्रार्थना कर सकते है कि हमें अपनी बौद्धिक, नैतिक, चारित्रिक, आत्मिक एवं आध्यात्मिक क्षमता में वृद्धि का मार्ग दिखाते रहें ताकि हम स्वयं ही अपने कष्टों को दूर करते रहें.
यद्यपि यह भी हमारी मूढ़ता ही है. क्योकि सकल कलुष नाशन पाप नसावन, भव भय हारण आप का अखंड महिमा संपन्न नाम तों सदा हमारे साथ है. जिसके परिपोषण के लिये आप सूक्ष्म रूप में आत्मा के नाम से हमारे अन्तः स्थल में समाहित हैं. अतः आप को अब कुछ नहीं करना है. अब जो भी करना है. वह हम स्वयं ही करेगें.
हे प्रभो ! शारीरिक कष्ट से ज्यादा मानसिक कष्ट घातक होता है. इसीलिये आप अपने नाम स्मरण के क्रियान्वयन एवं उसकी सिद्धि हेतु शरीर उत्तापन का विकल्प प्रदान कर रखे है. ताकि हम अपने दुर्लभ मानसिक सुख शान्ति का भर पूर आनंद उठा सकें.
हे राम !

    गिरिजा शरण मिश्र .

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