मेरे आदर्श गुरु पंडित राय जी के चरणों में सादर समर्पित
हे प्रभो ! आज मनुष्य अपने विकृत मनोमस्तिष्क एवं क्रिया कलाप को दोष न देकर कभी समय एवं कभी अपने ही समुदाय के ऊपर दोषारोपण कर सारे उत्तर दायित्व से मुक्त हो जाने क़ी व्यर्थ कल्पना कर लेता है. यद्यपि इसमें कोई त्रुटि नहीं कि कुसमय कलिकाल का विषाक्त प्रभाव है. किन्तु रोग हम पालते है-चाहे अनजाने में हो या अनजाने में. इसी सम्बन्ध में हे कृपालु! आप से मेरी एक विनती है. शैशव अवस्था में एक अबोध बालक यह नहीं जानता कि मल मूत्र त्याज्य एवं घृणित होते है. वह मल विसर्जन किसी भी पवित्र या अपवित्र जगह पर कर सकता है. किन्तु इसके लिये दोषी वह शिशु नहीं बल्कि उसकी देख रेख करने वाला होता है. तों मैं तों अप्रत्यक्ष रूप से आप को ही दोषी मानूंगा. कारण यह है कि उसकी देख रेख करने वाला भी आप ही क़ी छात्र छाया में पल रहा होता है. तों फिर उसके अपने उत्थान के लिये न सही उस बच्चे के हित में तों उस पालने वाले को सम्बंधित सदबुद्धि देनी चाहिए. ताकि वह उस बच्चे को ऐसे स्थल पर मल-मूत्रादी विसर्जित न करने दे. किन्तु अवश्य यहाँ पर भी आप क़ी अतिविचित्र एवं हमारी पहुँच से दूर क़ी पथ प्रदर्शिका व्यवस्था पहले से ही सुनियोजित है. आप उस पालने वाले को सीख देने के लिये ऐसे समय पर उन्मादी बना देते है. कारण यह है कि यदि स्वच्छ स्थल पर वह अबोध शिशु गन्दगी फैलाता है तों पालने वाले एवं उस शिशु क़ी देख करने वाले को भी उस अच्छे स्थान के प्रति असुविधा होगी. यही नहीं वह पालने वाला ही रोग व्याधि का शिकार होगा. यह अवश्य है कि वह शिशु भी गन्दगी के कारण व्याधिग्रस्त हो जाएगा. किन्तु इस अवस्था में भी दवा दारू आदि का कष्ट उस देख रेख करने वाले को ही उठाना पडेगा. निः संदेह हे मेरे ईश्वर ! आप क़ी महिमा अनुपमेय है. लेकिन कुंठा होती है यह देख कर कि आप क़ी ही संतान आप के अस्तित्व को मानने से ही इनकार कर रही है. अप्रत्यक्ष रूप से वह तों अपने आप को ही भगवान मानने लगी है. खद खुदा बन गयी है. इसके पीछे भी तों आप ने कुछ अपनी मानव संतति क़ी भलाई छिपा रखी होगी. कुछ कुछ तों रहस्य मेरी समझ में आ रहा है. जैसे किसी क़ी कम जोरी पकड़ कर उसकी शिकायत करनी शुरू कर दो वह अपनी उस कमजोरी को सुधारने में तल्लीन हो जाता है. जैसे ताम्बा, पीतल सोना आदि घिसने तथा आग में तपाने के बाद ही अपनी चमक एवं सुन्दरता को पुनः प्राप्त करते है. वैसे ही आप अपनी गंदी संतान के गन्दगी को पहले उजागर कर रहे है. तथा उसकी सतह क़ी गन्दगी के जड़ को ऊपरी स्तर को प्राप्त करने क़ी प्रतीक्षा कर रहे है. ताकि जब जड़ फैलते फैलते ऊपर आ जाय तों स्वयं ही मिट्टी एवं पानी के अभाव में सूख जाय. दूसरा और भी कारण हो सकता है. आप अभी प्रतीक्षा कर रहे है कि पहले इसे खूब सिर ऊपर उठा लेने दो. जब बहुत ऊंचा उठ जाएगा. तों हवा का एक ही थपेड़ा उसे धरासायी कर देगा. तथा जड़ समेत वह तरु सूख जाएगा. बिल्कुल सत्य बात है. कोई भी माता-पिता अपनी संतान को स्वयं नहीं मारना चाहता. इसीलिए आप भी अपने हाथो ऐसे नालायक संतानों को दण्डित करना नहीं चाहते. ज़रूर यह करते समय आप को पीड़ा होगी. किन्तु जब शरीर का कोई अँग शरीर के अन्य अंगो में संक्रमण फैलाने लगे तों क्या किया जाय? क्या उसे काट कर फेंकना नहीं चाहिए? लेकिन हे परम कृपालु ! आप बड़े ही कोमल हृदय है. आप यही तों कहना चाहते हि कि भले ही शरीर का कोई अँग संक्रमित हो जाय. किन्तु फिर भी उसे काटने में बहुत तक़लीफ़ होती है. हाय रे करुना निधान ! काश हम आप क़ी संतान आप क़ी इस अप्रमेय शिक्षा का मर्म समझते ! ऐसे परमेश्वर के अस्तित्व को नकार कर क्यों अपने आप को उनकी ममता एवं तीनो लोक चौदहों भुवन में कही भी किसी भी कीमत पर अप्राप्य आशीर्वाद से वंचित होना चाहते हो? हे राम !
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